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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/८६
अज्ञात निमंत्रण पाकर रुकना मत बढ़ते जाना। गुण-पुष्पों का चुम्बन कर आनन्दामृत उर लाना ॥ निज ज्योति निरख ज्योतिर्मय निज अन्तर में पाओगे। समरस में हो विमुग्ध तुम निज आतम को ध्याओगे॥ अस्तित्व तुम्हारा अपना सुरधनु सम रंग-बिरंगा। भवरंग स्वतः क्षय होता भव भावमयी भदरंगा॥ जब अपना ध्यान करोगे तो निज में ही आओगे। ज्ञायक स्वभाव पति होकर ध्रुव परमात्मा पाओगे॥ तुम तो हो मोक्षस्वरूपी तुमको न मुक्त होना है। तुम बने बनाए ईश्वर तुमको अब क्या होना है। निजरस गंगोत्री पाकर जीवन धारा चलती है। फिर जग की माया ममता इसको न कभी छलती है। क्षय अंतराय करते ही सुख की धारा मिल जाती। मुरझायी कली हृदय की पलभर में ही खिल जाती॥ यह अंतराय दुखदायी सुख में सदैव बाधक है।
वह इसको क्षय करता है जो निज का आराधक है। ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमालापूर्णाऱ्या नि.।
. आशीर्वाद
(दोहा) अंतराय को क्षय करूँ, पाऊँ सौख्य अपार । आत्मेन्द्र की कृपा से, हो जाऊँ भवपार ॥
— इत्याशीर्वादः