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________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ८१ पूजन क्र. १० अंतरायकर्म विरहित श्री सिद्धपरमेष्ठी पूजन स्थापना (छंद - कुण्डलिया) अंतराय को नाशकर, हो गए सिद्धमहंत । पाँच प्रकृतियाँ नष्ट कर, आप हुए भगवंत ॥ आप हुए भगवंत ज्ञान का आश्रय पाकर । तीन लोक के शीश विराजे निज को ध्याकर ॥ निज को ध्याकर प्रकट किया अपने स्वभाव को । मैं भी नाश करूँगा स्वामी अन्तराय को ॥ ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिसमूह! अत्र मम सन्निहितो भवभव वषट् । (छंद - रोला) जन्म- जरा - मरणादि रोग त्रय नाश करूँगा । सहज भाव जल चरण चढ़ा भव त्रास हरूँगा ॥ अंतराय की पाँच प्रकृतियों के क्षयकर्ता । सिद्ध महान वीर्य गुणधारी संकटहर्ता ॥ ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मीविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. । भव - आताप विनाशक चंदन मैंने पाया । हुआ सुनिश्चित भव का अंत निकट अब आया ॥ अंतराय की पाँच प्रकृतियों के क्षयकर्ता । सिद्ध महान वीर्य गुणधारी संकटहर्ता | ह्रीं अन्तरायकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं नि./
SR No.007133
Book TitleSiddha Parmeshthi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherKundkund Pravachan Prasaran Samsthan
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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