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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ८०
उत्तम स्वभाव का उपवन ही मुझको आज सुहाया । फिर स्वपर विवेकपूर्वक मैं तो शिवपथ पर आया ॥ गुणमणियाँ सहज अनन्तों स्वयमेव निकट आयी हैं। विरुदावलियाँ सिद्धों की मैंने सविनय गायी हैं । मैं सिद्ध बनूँगा निश्चित संदेह नहीं है मन में । विश्वास जगा है भीतर आया हूँ निज उपवन में | आनन्द अतीन्द्रय धारा पायी है अन्तर्यामी । सुख सादि - अनन्त मिला हो मानो हे मेरे स्वामी ॥ अब तो मेरे अन्तर में निज ज्ञान-चेतना आयी । उपयोग हुआ है निर्मल निज परिणति भी हर्षायी ॥ ज्ञायक स्वभाव पाते ही ज्ञानाम्बुज खिला अनूठा । मोहादि विकारी भावों का सर्व सैन्य दल रूठा ॥ गगनांगन नाच रहा है आस्रव पर जय पायी है। संवर की पावन बेला हर्षित मैंने पायी है ।
क्षय पूर्वबद्ध करने को निर्जरा नृत्य करती है । अपनी स्वशक्ति के द्वारा चारों कषाय हरती है । अब मोक्षतत्त्व आया है मुझको ही वन्दन करने । सब घाति - अघाति नाश कर कर्मों के बंधन हरने ॥ अब गोत्रकर्म नागूँगा भवदुःख सब नाश करूँगा । गुण अगुरुलघुत्व प्राप्त कर संसार समस्त हरूँगा ॥ ॐ ह्रीं गोत्रकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमालापूर्णार्घ्यं नि. ।
आशीर्वाद
(दोहा)
गोत्रकर्म का नाश कर, पाऊँ पद निर्वाण । अपने ही बल से करूँ, मुक्ति - भवन निर्माण ॥
इत्याशीर्वादः ।
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