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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/४
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नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति कोड़ाकोड़ी सागर बीस। गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति कोड़ाकोड़ी सागर बीस ॥ आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तुम तैंतिस सागर लो जान । मोहनीय की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर स्थिति मान ।। अब कर्मों की जघन्य स्थिति भी जानो तुम भलीप्रकार। उन्हें नहीं बँधती है जो कर देते हैं इनका संहार ॥ जैसे नामकर्म का होता वैसा ही बँधता अनुभाग । स्थिति तदनुसार बँधती है जैसा भी होता है राग ॥
(छंद - रोला) है अन्र्मुहूर्त कर्म ज्ञानावरणी की। है अन्तर्मुहूर्त कर्म दर्शनावरणी की। मोहनीय की है अन्तर्मुहूर्त यह जानो। वेदनीय की है. बारह मुहूर्त पहचानो। आयुकर्म की भी अन्तर्मुहूर्त पहचानो। अंतराय की भी अन्तर्मुहूर्त तुम जानो। नामकर्म की केवल आठ मुहूरत जानो। गोत्रकर्म की केवल आठ मुहूरत जानो। जैसा हो परिणाम बंध वैसा होता है। जघन्य या उत्कृष्ट मध्य बंधन होता है। . कौन-कौन सी प्रकृति बँधी वह प्रकृति-बंध है। आत्मप्रदेशों में बँधना वह प्रदेश-बंध है। कितनी स्थिति बँधी वही स्थिति-बंध है। कितना रस बल बँधा वही अनुभाग-बंध है। नाना करम उदय को ही विपाक कहते हैं। इस विपाक को ही अनुभाग-बंध कहते हैं।