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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/५
स्थिति पूरी होते ही सविपाक-निर्जरा। स्थिति के पहले होती अविपाक-निर्जरा॥ कर्मों के नामानुसार अनुभाग-बंध है। भाव-द्रव्य आस्रव से ही यह कर्म-बंध है। शुभपरिणामों से शुभ-प्रकृति अधिक बँधती है। उसके संग में अशुभ-प्रकृति आकर बँधती है। अशुभभाव से अशुभप्रकृति अधिक बँधती है। उसके संग में शुभप्रकृति अल्प बँधती है।
(दोहा) ज्ञानावरणी ढक रहा, है अनादि से ज्ञान । पाँच प्रकृति इस कर्म की, नाशक ज्ञान महान॥ कर्म दर्शनावरणी को, दर्शन बाधक मान । इसकी कुल नौ प्रकृतियाँ, क्षय करते भगवान ॥ वेदनीय इस कर्म की, निज सुख बाधक मान। इसकी दोनों प्रकृतियाँ, क्षय करते गुणवान॥ मोहनीय सम्यक्त्व में, पूरा बाधक मान । नाश योग्य हैं प्रकृतियाँ, अट्ठाईस प्रधान ॥ आयुकर्म से बंध है, चहुँगति की पहचान । प्रकृति चार के नाश से, हो जाते भगवान॥ नामकर्म जड़ देहप्रद, सर्व दुःखों की खान । हैं तिरानवे प्रकृतियाँ, नाश योग्य लो जान॥ गोत्रकर्म को जानिए, ऊँच-नीच है काज। इसकी भी दो प्रकृतियाँ, क्षय करते मुनिराज॥ दान-लाभ-भोगादि में, बाधक है अंतराय। प्रकृति पाँच इस कर्म की, क्षय करते मुनिराय॥