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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ३
(सोरठा)
कर्म सर्व दुःखरूप, मूल प्रकृतियाँ आठ हैं इक शत अड़तालीस, उत्तर प्रकृति प्रसिद्ध है ॥ कर्म घातिया, चार, आतम के गुण घातते । हैं अघातिया चार, मुक्ति-सौख्य- बाधक सदा ॥ कर्म घातिया चार, पहला ज्ञानावरण है । इसका ही तो भ्रात, द्वितिय दर्शनावरण है ॥ भव - विभ्रम का मूल, मोहनीय है तीसरा । शिवसुख - बाधक पूर्ण, अन्तराय चौथा गिनो ॥ अरु अघातिया चार, पहला आयु प्रसिद्ध है । द्विविध कर्म है नाम, तृतीय गोत्र पहचानिए | भवमय दुःख-सुखरूप, वेदनीय चौथा सुनो। ये ही आठों कर्म, त्वरित दहन के योग्य हैं । । (छंद - ताटंक)
घातिकर्म की सैंतालीस प्रकृति करतीं घातक - उत्पात । अघातिया की इक्शत एक प्रकृति से रुकता मुक्ति - प्रभात ॥ पहले घातिकर्म क्षय करना फिर अंघातिया क्षय करना । दोनों को क्षय करके ही तुम मुक्तिप्रभात प्राप्त करना ॥ (वीरछन्द)
कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को अब तुम जानो भली प्रकार । ऐसी स्थिति नहीं बँधे फिर इसका ही तुम करो विचार || ज्ञानावरण कर्म की उत्कृष्ट कोड़ाकोड़ी सांगर तीस । कर्म दर्शनावरण की है कोड़ाकोड़ी सागर तीस ॥ वेदनीय कर्म की स्थिति कोड़ाकोड़ी सागर तीस । अन्तराय कीं उत्कृष्ट स्थिति कोड़ाकोड़ी सागर तीस ॥