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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/२
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पीठिका
(हरिगीतिका) कर्मक्षय की सुविधिदर्शक सिद्धपरमेष्ठी विधान । सुविधि होते ही क्रियान्वित कर्म का मिटता निशान ॥ कर्म जड़ पुद्गल अचेतन भवदुःखों के मूल हैं। शुद्ध निज चैतन्य के तो ये महा-प्रतिकूल हैं। इन्हीं के क्षय हेतु मैं अब शरण में आया प्रभो। प्रकृति इनकी नाश करने को तुम्हें ध्याया विभो॥ मनुज भव उत्तम मिला है मिली जिनवर भक्ति भी। मिला समकित का सुअवसर तथा संयम शक्ति भी॥ ध्यान ज्वाला में करूँगा दहन आठों कर्म को। सिद्ध पद निष्कर्म गूंगा प्राप्त कर सद्धर्म को॥ दो मुझे आशीष पावन पूज्य सिद्ध महा-महान। सिद्धपरमेष्ठी विधान करूँ सु पाऊँ आत्मभान ॥
(हरिगीत). नाश ज्ञानावरण ज्ञान अनन्त निज प्रकटाऊँगा। नाश दर्शन-आवरण सुअनन्तं दर्शन पाऊँगा। वेदनीय विनाश अव्याबाध सुख मैं पाऊँगा। मोहनीय विनाश कर मैं वीर्यगुण प्रकटाऊँगा। आयुकर्म विनाश गुण अवगाहनत्व सुपाऊँगा। नामकर्म विनाश गुण अगुरुलघुत्व सुपाऊँगा। गोत्रकर्म विनाश गुण सूक्ष्मत्व हे प्रभु पाऊँगा। अंतराय विनाश गुण सम्यक्त्व क्षायिक पाऊँगा। अष्टकर्म विनाश हे प्रभु गुण अनंत प्रकट करूँ। आत्मज्ञान प्रकाश पा संसार सर्व विघट करूँ॥