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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/६३
प्रथम द्वितीय तृतीय काल में प्रथम संहनन होता है। काल चतुर्थम छह प्रकार का संहनन सदा ही होता है। पंचम काल तीन संहनन छठे एक संहनन प्रसिद्ध । . विकलत्रय चौ इन्द्रिय इक-इक एकेन्द्रिय संहनन सुसिद्ध ॥४०॥ ॐ ह्रीं असंप्राप्तसृपाटिकासंहनननामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
आनुपूर्व्य की चार प्रकृतियाँ हे प्रभु नाश करूँगा मैं। नरक गत्यानुपूर्व प्रकृति को निश्चित नाथ हरूँगा मैं॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवें भवदुख-मूल । . निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥४१॥ ॐ ह्रीं नरकगत्यानुपूर्वनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
आनुपूर्व्य की चार प्रकृतियाँ हे प्रभु नाश करूँगा मैं। तिर्यग्गत्यानुपूर्व प्रकृति को निश्चित नाथ हरूँगा मैं॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥४२॥ ॐ ह्रीं तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
आनुपूर्व्य की चार प्रकृतियाँ हे प्रभु नाश करूँगा मैं। मनुष्यगत्यानुपूर्व प्रकृति को निश्चित नाथ हरूँगा मैं॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥४३॥ ॐ ह्रीं मनुष्यगत्यानुपूर्वनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। .
आनुपूर्व्य की चार प्रकृतियाँ हे प्रभु नाश करूँगा मैं। देवगत्यानुपूर्व की प्रकृति को निश्चित नाथ हरूँगा मैं।
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