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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/६४
नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥४४॥ ॐ ह्रीं देवगत्वानुपूर्वनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि./
कोमल प्रकृति विनाश करूँ मैं ज्ञानभाव का करूँ प्रकाश। अब स्पर्श नामकर्म के आठ भेद सब करूँ विनाश ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥४५॥ ॐ ह्रीं कोमलस्पर्शनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
प्रकृति कठोर विनाश करूँ मैं ज्ञानभाव का करूँ प्रकाश। अब स्पर्श नाम कर्म के आठ भेद सब कर दूँ नाश ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥४६॥ ॐ ह्रीं कठोरस्पर्शनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। भारी या गुरु प्रकृति नाशकर ज्ञानभाव का करूँ प्रकाश। अब स्पर्श नामकर्म के आठ भेद सब कर दूँ नाश॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। .
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥४७॥ ॐ ह्रीं भारीस्पर्शनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
लघु या हलकी प्रकृति नाशकर ज्ञानभाव का करूँ प्रकाश। अब स्पर्श नामकर्म के आठ भेद सब कर दूँ नाश ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवें भवदुख मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥४८॥ ॐ ह्रीं लघुस्पर्शनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
शीत प्रकृति स्पर्श कर्म की निज बल से मैं करूँ विनाश। . है अब स्पर्श नामकर्म के आठ भेद सब कर दूँ नाश॥