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________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/५७ प्रभु चौ इन्द्रिय जाति प्रकृति का नाश करूँ ऐसा दो ज्ञान । पाँच भेद हैं जाति नाम के इनका कर डालूँ अवसान ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥१३॥ ॐ ह्रीं चतुरिन्द्रियजातिनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। प्रभु पंचेन्द्रिय जाति प्रकृति का नाश करूँ ऐसा दो ज्ञान। पाँच भेद हैं जाति नाम के इनका कर डालूँ अवसान ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥१४॥ ॐ ह्रीं पंचेन्द्रियजातिनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। अंगोपांग जु भेद तीन हैं नामकर्म के बहु विख्यात। अशरीरी चेतन स्वरूप का करते रहते हैं ये घात ॥ औदारिक शरीरांगोपांग प्रकृति मुझे क्षय करना है। अंगोपांग भेद त्रय दुखमय हे प्रभु मुझको हरना है। नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल । निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥१५॥ ॐ ह्रीं औदारिकआंगोपांगनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं नि./ वैक्रियक शरीरांगोपांग प्रकृति मुझे क्षय करना है। अंगोपांग भेद त्रय दुखमय हे प्रभु मुझको हरना है। नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल । निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥१६॥ ॐ ह्रीं वैक्रियकआंगोपांग नामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। आहारक शरीरांगोपांग प्रकृति मुझे क्षय करना है। अंगोपांग भेद त्रय दुखमय हे प्रभु मुझको हरना है।
SR No.007133
Book TitleSiddha Parmeshthi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherKundkund Pravachan Prasaran Samsthan
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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