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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/५६
तैजस प्रकृति सतत बाधक है नहीं छोड़ती मेरा साथ। इसको क्षय करने का निश्चय मुझे सुहाया है हे नाथ ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥८॥ ॐ ह्रीं तैजसशरीरनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. ।
कार्माण तन पाकर मैंने प्रभु अनादि से दुख पाया। कार्माण तन क्षय करने का अब अलभ्य अवसर पाया। नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥९॥ ॐ ह्रीं कार्माणशरीरनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्ताये अर्घ्य नि.।
प्रभु एकेन्द्रिय जाति प्रकृति का नाश करूँ ऐसा दो ज्ञान। पाँच भेद हैं जाति नाम के इनका कर डालूँ अवसान ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥१०॥ ॐ ह्रीं एकेन्द्रियजातिनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
प्रभु दो इन्द्रिय जाति प्रकृति का नाश करूँ ऐसा दो ज्ञान। पाँच भेद हैं जाति नाम के इनका कर डालूँ अवसान ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥११॥ ॐ ह्रीं द्वीन्द्रियजातिनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि./
प्रभु त्रय इन्द्रिय जाति प्रकृति का नाश करूँ ऐसा दो ज्ञान । पाँच भेद हैं जाति नाम के इनका कर डालूँ अवसान ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल । निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥१२॥ ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजातिनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये से अर्घ्य नि.।