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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/५८
नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥१७॥ ॐ ह्रीं आहारकांगोपांगनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
बन्धन नाम जु कर्म उदय से होता बन्धन नाम जु कर्म। पुद्गल स्कन्धों का मिलना पंच भेद हैं प्रकृति जु कर्म॥ अंग हाथ दो भाव पीठ वक्षस्थल नितम्ब अरु मस्तक। अंगुली कान नाक आदि ये उपांग कहलाते तन तक॥ . कर्मोदय से अंगोपांगों का होता रहता निर्माण । इस निर्माण प्रकृति का स्वामी मुझको करना है अवसान ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥१८॥ ॐ ह्रीं निर्माणनामकविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
औदारिक बन्धन की प्रकृति विनाश करूँ अन्तर्यामी। पाँचों बन्धन क्षय कर दूं प्रभु ऐसा बल दो हे स्वामी॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥१९॥ ॐ ह्रीं औदारिकबंधननामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
वैक्रियक बंधन की प्रकृति विनाश करूँ अन्तर्यामी। '. पाँचों बंधन क्षय कर दूं प्रभु ऐसा बल दो हे स्वामी॥
नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥२०॥ ॐ ह्रीं वैक्रियकबंधननामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
आहारक बंधन की प्रकृति विनाश करूँ अन्तर्यामी। पाँचों बंधन क्षय कर दूँ प्रभु ऐसा बल दो हे स्वामी॥