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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ५०
महार्घ्य
(छंद - समानसवैया) जड़ तन पाँचों इन्द्रिय द्वारा इस चेतन को पा न सकोगे । वर्ण गंध रस पर्श शब्द से भी चेतन को ध्या न सकोगे ॥ जड़ काया से पूर्ण पृथक् है दर्शन ज्ञानमयी अशरीरी । जिन स्वभाव की महिमा से है इसकी रंच न पल भर दूरी ॥ यदि चेतन को पाना है तो फिर चेतन से परिचय करना । आयुकर्म क्षय करना है तो पहले निज का निर्णय करना ॥ भवपथ से यदि ऊबे हो तो शिवपथ पर जल्दी आ जाओ । अनुभव सागर में अब डुबकी लगा रत्न अपने ले आओ ॥ बिन पुरुषार्थ सफल होता है नहीं अरे पुरुषार्थ कभी भी । अभूतार्थ को तजे बिना मिलता न अरे भूतार्थ कभी भी ॥ (दोहा)
महा - अर्घ्य अर्पण करूँ, आयुकर्म कर नाश ।
सूक्ष्मत्व गुण प्रकट कर, पाऊँ आत्मनिवास ॥
ॐ ह्रीं आयुकर्मविरहित श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(मानव)
मिथ्यात्व - हवा का झोंका प्रतिपल चलता रहता है। बहु भव-बंधन कर प्राणी चारों गति में बहता है | कोई न बचाने पाता ऐसा है यह मिथ्याभ्रम । वह ही बच पाता है जो करता है ज्ञान परिश्रम ॥ इस श्रम के द्वारा प्राणी सम्यग्दर्शन पाता है । निधि भेद - ज्ञान की अपने अन्तर्मन में लाता है ॥