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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/४९
अर्ध्यावलि
(दोहा) आयुकर्म की प्रकृतियाँ, दुखमय घोर प्रसिद्ध । इनके क्षय बिन तो नहीं, होता कोई सिद्ध ॥
. (वीरछन्द) नरक आयु अति दुखदायी है सातों नरक महादुखरूप। नरक आयु क्षय करने का ही यत्न करूँगा निज अनुरूप॥ आयुकर्म की सर्व प्रकृतियाँ मुझको ही क्षय करना है।
सूक्ष्मत्व गुण पाने को प्रभु इन्हें शीघ्र ही हरना है ॥१॥ ॐ ह्रीं नरकायुकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
आयु तिर्यश्च घोर दुखदायी है निगोद तक की दाता। इसको क्षय करने का निश्चय जिन-आगम में विख्याता॥ आयुकर्म की सर्व प्रकृतियाँ मुझको ही क्षय करना है। सूक्ष्मत्व गुण पाने को प्रभु इन्हें शीघ्र ही हरना है ॥२॥ ॐ ह्रीं तिर्यञ्चायुकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
मनुज आयु भी भव दुखमय है बोध-अबोध दशा होती। इसके क्षय बिन कभी नहीं चेतन की सिद्ध दशा होती॥ आयुकर्म की सर्व प्रकृतियाँ मुझको ही क्षय करना है।
सूक्ष्मत्व गुण पाने को प्रभु इन्हें शीघ्र ही हरना है ॥३॥ ॐ ह्रीं मनुष्यायुकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि./
देव आयु भी क्षणभंगुर दुख देती आई विविध प्रकार। इसके क्षय बिन कभी नहीं पा सकता प्राणी सौख्य अपार॥ आयुकर्म की सर्व प्रकृतियाँ मुझको ही क्षय करना है।
सूक्ष्मत्व गुण पाने को प्रभु इन्हें शीघ्र ही हरना है ॥४॥ ॐ ह्रीं देवायुकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।।