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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/५१
है संग दुष्ट अविरति का पर संयम की अभिलाषा। कर प्राप्त संयमासंयम पूरी करता है आशा ।। फिर संयम पूर्ण धारता सप्तम षष्टम में जाता। झूले पर झूला करता फिर श्रेणी पर चढ़ जाता॥ उपशम श्रेणी पाता तो ग्यारहवें से गिर जाता। क्षायिक श्रेणी पाता तो बारहवाँ ही प्रकटाता ॥ कर मोह क्षीण सारा ही तेरहवाँ पा लेता है। अरहंत दशा प्रकटाकर जगती को सुख देता है। फिर चौदहवाँ पा लेता पश्चात् सिद्ध होता है। सिद्धत्व स्वगुण झट पाकर संसार सर्व खोता है। यों आयुकर्म को क्षय कर निज शिव पद पा लेता है।
आठों कर्म से विरहित हो शाश्वत सुख लेता है। ॐ ह्रीं आयुकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमालापूर्णाऱ्या निर्वपामिति स्वाहा
. आशीर्वाद
___ (दोहा) आयुकर्म को क्षय करूँ, चहुँगति कर अवसान। . अपने ही बल से करूँ, मुक्ति-भवन निर्माण ॥
इत्याशीर्वादः। ........................ : आयो-आयो रे हमारो बड़ो भाग्य कि हम आए पूजन को।
पूजन को प्रभु दर्शम को, पावन प्रभु-पद पर्शन को को।।टेक। जिनवर की अन्तर्मुख मुद्रा आतम दर्श कराती। मोह महामल प्रक्षालन कर शुद्ध स्वरूप दिखाती ॥१॥ भव्य अकृत्रिम चैत्यालय की जग में शोभा भारी। : मंगल ध्वज ले सुरपति आए शोभा जिसकी न्यारी ॥२॥
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