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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/४६
अगर भूल जाओगे तो सत्य मानो।
तुम्हारा ही निज आत्मा दुख सहेगा। सरल शान्ति धारा में अभिषेक कर लो।
सहज आत्मा का करो नित्य चिन्तन ॥ विभावों के बादल घनेरे हटेंगे।
महल आस्रव का निमिष में ढहेगा। जो हैं पूर्व कर्मों के बंधन उन्हें अब ।
हनन निर्जरा शीघ्र आकर करेगी। दशा शुद्ध निर्बन्ध होगी तुम्हारी। .
सकल कर्म ईंधन स्वयं ही दहेगा। महामोक्ष-तरु-फल मिलेगा शिवम् मय।
निजानन्द आनन्द होगा सदा को॥ महामोह मर जाएगा एक पल में।
नहीं तुमसे फिर यह कभी कुछ कहेगा। अनन्तों. गुणों से हो मण्डित सदा तुम ।
महाशक्ति धारी अनाकुल स्वभावी॥ सतत अपनी शुद्धात्मा को ही निरखो।
यही आतमा तुमको उर में गहेगा। मिलेगा तुम्हें चक्र सिद्धों का अनुपम ।
तुम्हें अपने भीतर सजाएगा तत्क्षण ॥ त्रिलोकाग्र परं वास होगा तुम्हारा । सदा पूर्ण सुख-सिन्धु उर में बहेगा।
(दोहा) दर्शन मोह विनाशकर, पाऊँ दृढ़ सम्यक्त्व।
चरित मोह फिर नष्ट कर, प्राप्त करूँ सिद्धत्व॥ ॐ ह्रीं मोहनीयकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमालापूर्णायँ नि.।
(दोहा) मोहनीय को क्षय करूँ, पाऊँ पद निर्वाण। अपने ही बल से करूँ, मुक्ति-भवन निर्माण ॥
इत्याशीर्वादः।