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________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/४५ महार्घ्य (छंद - विजात) मिला है समकित तो याद रखना स्वयं की श्रद्धा न जाने देना। विभावी भावों की रात काली किसी गली से न आने देना। स्वभाव कंचन के सम खरा है इसे मिलावट से दूर रखना। सुमेरु जैसे अचल ही रहना न एक पल को भी डिगने देना। बने बनाए महल गिरा दो ये रागवाले सदा-सदा को। . | स्वरूप का ही सतत हो चिन्तन विकार उर में न आने देना॥ ये कलमुँही है विभावी परिणति इसे कभी भी न संग रखना। स्वभाव परिणति है मात्र अपनी स्वगीत इसको तुम गाने देना। ये मोह का घर अभीजला दो मिटा दो इसको स्वबल से अपने। स्वभाव अपना ही तुम सम्भालोजरा भी भय को न आने देना॥ (दोहा) महा-अर्घ्य अर्पण करूँ, नष्ट करूँ मिथ्यात्व। मुक्ति-मार्ग पर चल प., पा क्षायिक सम्यक्त्व॥ ॐ ह्रीं मोहनीयकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो महार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। (छंद -विजया) महामोह के जाल में तुम न फँसना। महादुष्ट तुमको भ्रमित कर रहेगा। तुम्हें स्वर्ग का लोभ देगा बहुत यह । चलो संग मेरे ये तुम से कहेगा। तुम्हें आज मुश्किल से समकित मिला है। बहकना नहीं आत्मश्रद्धा . से चेतन ।। अगर तुमने अपनी स्वश्रद्धा को छोड़ा। तो. भव-कष्ट चेतन सदा ही रहेगा। अगर देव-गुरु-धर्म पर आस्था है। तो उपदेश उनका नहीं भूलना अब ॥
SR No.007133
Book TitleSiddha Parmeshthi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherKundkund Pravachan Prasaran Samsthan
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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