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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/३४
महार्घ्य
(छंद - सवैया) आए हो चेतन शिवपथ पर जानो स्वद्रव्य ध्रुव निजमन से। तुमको अब भेद-विज्ञान हुआ मिथ्यात्व तजा है इस क्षण से॥ हे ज्ञान तरंगो तुम बोलो कब तक तुम संग दोगी मेरा। यह जड़ पुद्गल तन दुखमय है दुर्गन्धित यह कण-कण से॥ अब तक दुख की लहरें पार्टी सुख पाया नहीं एक पल भी। अब सुख का अवसर आया है तुमको जाना अन्तर्मन से॥ भवदधि में सुख-दुख की लहरें आस्रव को जागृत रखती हैं। तुमने पायी अब संवर निधि अब बहक न जाना जीवन से॥ श्रद्धान स्वयं का दृढ़ करना तुम बहक न जाना अब पर में। तुम दर्शन-ज्ञान स्वरूपी हो निर्णय करना निश्चय मन से॥
(दोहा) महा-अर्घ्य अर्पण करूँ, करूँ विभाव अभाव।
वेदनीय को क्षय करूँ, वेदन करूँ स्वभाव॥ | ॐ ह्रीं वेदनीयकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
(छंद - चौपाई) वेदनीय की सही वेदना, यह अनादि की भव विडम्बना। भाऊँ प्रतिपल आत्मभावना, क्षय में हो प्रभु अब विलम्ब ना॥ मैं अपना ही ज्ञान सजाऊँ, भेदज्ञान की बीन बजाऊँ। ज्ञान भावना नित प्रति भाऊँ, मिथ्यादर्शन को विघटाऊँ॥ स्वपर-विवेक हृदय में लाऊँ, सम्यग्दर्शन उर प्रकटाऊँ। परम शान्ति का सागर पाऊँ, महिमाशाली निज को ध्याऊँ॥