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________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/३३ महामोक्ष फल पाने को प्रभु शुक्ल ध्यान फल लाया हूँ। वेदनीय दो प्रकृति नाश हित प्रभु चरणों में आया हूँ॥ वेदनीय के नाशक सिद्धों को सादर वन्दन मेरा। अव्याबाधी सुख गुण पाऊँ नाश करूँ भव का फेरा॥ ॐ ह्रीं वेदनीयकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि.। पद अनर्घ्य पाने को स्वामी अर्घ्य ज्ञानमय लाया हूँ। वेदनीय दो प्रकृति नाश हित प्रभु चरणों में आया हूँ॥ वेदनीय के नाशक सिद्धों को सादर वन्दन मेरा। अव्याबाधी सुख गुण पाऊँ नाश करूँ भव का फेरा॥ ॐ ह्रीं वेदनीयकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. अर्ध्यावलि (दोहा) वेदनीय दो प्रकृतियाँ, करूँ शीघ्र अवसान।... अव्याबाधी सौख्य पा, पाऊँ स्वपद महान॥ (छंद - ताटंक) वेदनीय की साता प्रकृति शुभास्रव से बँध जाती है। कुछ दिन तक साता देती है फिर विलीन हो जाती है। वेदनीय की प्रकृति विनायूँ अव्याबाधी सुख पाऊँ। सिद्ध दशा परिपूर्ण प्रकट कर परम शान्ति सुख प्रभु पाऊँ॥१॥ ॐ ह्रीं सातावेदनीयप्रकृतिविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अर्घ्य नि.। प्रकृति असाता वेदनीय की अशुंभास्रव से बँध जाती। भव-अटवी में अटकाती है घोर वेदना उपजाती॥ वेदनीय की प्रकृति विनायूँ अव्याबाधी सुख पाऊँ। सिद्ध दशा परिपूर्ण प्रकट कर परम शान्ति सुख प्रभु पाऊँ॥२॥ है ॐ ह्रीं असातावेदनीयप्रकृतिविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अर्घ्य नि.।
SR No.007133
Book TitleSiddha Parmeshthi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherKundkund Pravachan Prasaran Samsthan
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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