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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/३५
करूँ आत्मा का अवलोकन, जो सम्पूर्णतया आनंदघन। पर्यायों से दृष्टि हटाऊँ, द्रव्यदृष्टि हे प्रभु बन जाऊँ। आत्मोन्नति के मूल मंत्र को, मोक्ष-प्राप्ति के महामंत्र को। नाथ कभी मैं भूल न जाऊँ, निज स्वभाव स्वामी बन जाऊँ॥ संयम की फुलवारी महके, अन्तरात्मा निज में चहके। अनुभव रस की महिमा गाऊँ, निज ज्ञायक का ध्यान लगाऊँ॥ सकल ज्ञेय ज्ञायक हो जाऊँ, सिद्ध स्वपद अपना विकसाऊँ। राग रंग से दूर रहूँ मैं, निज स्वभाव रस चूर रहूँ मैं। ज्ञान गीत निज के ही गाऊँ, शुद्ध ज्ञान के वाद्य बजाऊँ। गुण अनंतमणि माला लाऊँ, निज ज्ञायक को ही पहनाऊँ॥ यथाख्यात श्रृंगार करूँ मैं, मोह क्षीण कर घाति हरूँ मैं। भव बाधाएँ सब विघटाऊँ, प्रभु अरहंत दशा प्रकटाऊँ। गुण सिद्धत्व प्रकट कर अपना, भव दुख सारा कर दूँसपना।
वेदनीय का नाश करूँ मैं, अव्याबाधी सौख्य वरूँ मैं॥ ॐ ह्रीं वेदनीयकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
आशीर्वाद
(दोहा) वेदनीय को क्षय करूँ, पाऊँ पद निर्वाण। अपने ही बल से करूँ, मुक्ति भवन निर्माण ॥
इत्याशीर्वादः।