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परमार्थवचनिका प्रवचन
आध्यात्मिक कविवर पण्डित श्री बनारसीदासजी द्वारा रचित
उपादान-निमित्त की चिट्ठी का एक अंश ___ जहाँ मोक्षमार्ग साधा, वहाँ कहा कि 'सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' और ऐसा भी कहा कि 'ज्ञानक्रियाभ्याँ मोक्षः'। उसका विचार-चतुर्थ गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थानपर्यन्त मोक्षमार्ग कहा, उसका विवरण-सम्यक् रूप ज्ञानधारा, विशुद्धरूप चारित्रधारा। दोनों धारायें मोक्षमार्ग को चलीं; वहाँ ज्ञान से ज्ञान की शुद्धता, क्रिया से क्रिया की शुद्धता है। विशुद्धता में शुद्धता तो यथाख्यातरूप होती है। यदि विशुद्धता में वह नहीं होती तो केवली में ज्ञानगुण शुद्ध होता, क्रिया अशुद्ध रहती; परन्तु ऐसा तो नहीं है। उसमें शुद्धता थी, उससे विशुद्धता
.. यहाँ कोई कहे कि ज्ञान की शुद्धता से क्रिया शुद्ध हुई – सो ऐसा नहीं है। कोई गुण किसी गुण के सहारे नहीं है, सब असहायरूप
___और भी सुन! यदि क्रियापद्धति सर्वथा अशुद्ध होती तो अशुद्धता
को इतनी शक्ति नहीं है कि मोक्षमार्ग को चले; इसलिए विशुद्धता में यथाख्यात का अंश है, इसीलिए वह अंश क्रम-क्रम से पूर्ण हुआ। ___ हे भाई प्रश्न करने वाले! तूने विशुद्धता में शुद्धता मानी या नहीं? यदि तूने वह मानी तो कुछ और कहने का काम नहीं है; यदि तूने नहीं मानी तो तेरा द्रव्य इसीप्रकार परिणत हुआ है, हम क्या करें? यदि मानी तो शाबाश! - पण्डित बनारसीदासजी : उपादान-निमित्त की चिट्ठी
(मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३५९)