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________________ 64 परमार्थवचनिका प्रवचन शास्त्र में कहीं निमित्त से अथवा व्यवहार से शुभ रागादि को धर्म का कारण कहा हो तो भी धर्मीजीव भ्रमित नहीं होता। वह निःशंक समझता है कि यह तो मात्र उपचार कथन है, वास्तव में ऐसा है नहीं। राग तो धर्म है ही नहीं, राग तो निश्चितरूप से विभाव....विभाव और विभाव है वह मेरा स्वभाव नहीं, वह मोक्ष का साधन भी नहीं; जो कोई उसे मोक्ष का साधन मानता है, वह निश्चित अज्ञानी है; ऐसे दृढ़-निर्णय के बल से वह निजस्वभाव को साधता है, स्वभावाश्रित मोक्षमार्ग को साधता है। इसतरह सम्यग्दृष्टि-ज्ञाता अन्तर्दृष्टि से मोक्षपद्धति को साधना जानता है। यह सम्यग्दृष्टि के विचार का वर्णन चल रहा है। सम्यग्दृष्टि तो निजस्वरूप के सम्यक्-निर्णय के बल से अध्यात्मपद्धति से मोक्षमार्ग को साधना जानता है, परन्तु मिथ्यादृष्टि तो भ्रम से आगम पद्धति को मोक्ष का साधन मानकर अकेली आगमपद्धति..(अशुद्ध परिणति) में ही वर्तता है, इसलिए वह मोक्षमार्ग को नहीं साध सकता, क्योंकि मोक्षमार्ग आगमपद्धति के आश्रित नहीं है। ........... जगवासी जिय सोइ क्रिया एक करता जुगल, यौं न जिनागम मांहि। अथवा करनी और की, और करे यौं नाँहि ॥२१॥ करैं और फल भोगवै, और बने नहिं एम। जो करता सो भोगता, यहै यथावत जेम ॥२२॥ भावकरम करतव्यता, स्वयंसिद्ध नहिं होइ। जो जग की करनी करै, जगवासी जिय सोई॥२३॥ जिय करता जिय भोगता, भावकरम जियचाल। पुद्गल करै व भोगवै, दुविधा मिथ्याजाल ॥२४॥ तातै भावित करम कौं, करै मिथ्याती जीव । सुख-दुःख आपद-संपदा भुजै सहज सदीव ॥३५॥ ___- पण्डित बनारसीदासजी नाटक समयसार, सर्वविशुद्धिद्वार ।
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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