SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमार्थवचनिका प्रवचन अन्य वस्तु कहे, वह प्रत्यक्षप्रमाण भ्रामक अथवा अन्ध । उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि को स्व- पर स्वरूप में न संशय, न विमोह, न विभ्रम; यथार्थदृष्टि है। इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्दृष्टि से मोक्षपद्धति को साधना जानता है।' 99 62 जिसको आत्मस्वरूप में कोई सन्देह नहीं, जिसने नि:शंकपने आत्मस्वरूप को जाना है - ऐसा सम्यग्दृष्टि ही मोक्षमार्ग को साधता है। स्वरूप के निर्णय में ही जिसके भूल पड़ी है, वह मोक्षमार्ग को नहीं साध सकता। यहाँ सीप और चाँदी के दृष्टान्त से यह बात समझाई है। देह ही आत्मा होगी अथवा देह से भिन्न आत्मा होगा? आत्मा देह की क्रिया का कर्त्ता होगा या अकर्त्ता? पुण्य-पाप से धर्म होता होगा या नहीं? इसप्रकार जिसे शंका है, किंचित् भी तत्त्वनिर्णय नहीं - ऐसा संशयदृष्टि वाला मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षमार्ग को साध नहीं सकता। विकार और स्वभाव की भिन्नता का अथवा जड़-चेतन की भिन्नता का सच्चा विचार ही उसे नहीं है, अतः संशयग्रस्त है । पुनश्च दूसरा विमोहवान पुरुष भी स्वभाव क्या, परभाव क्या, बंधमार्ग क्या, मोक्षमार्ग क्या ? - इसका सही निर्णय नहीं करता; कभी | ऐसा लगे कि वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग होगा तथा व्यवहार के पक्ष की बात सुनने पर ऐसा लगने लगे कि शुभराग भी मोक्ष का साधन होगा इसप्रकार अनिश्चयपना वर्त्तता रहे तो उसकी परिणति स्वभाव की तरफ कैसे ढलेगी? निःसन्देह दृढ़निर्णय बिना परिणति अन्दर में झुकेगी नहीं और मोक्षमार्ग सध सकेगा नहीं। जैसे चाँदी का टुकड़ा है या सीप का ? इसके सत्यनिर्णय बिना उसे छोड़ना या ग्रहण करना - यह निश्चय नहीं हो सकता। वैसे ही स्वभाव क्या और परभाव क्या, कौनसा भाव बन्धमार्ग और कौनसा मोक्षमार्ग ? इसके यथार्थ निर्णय बिना, कौनसा भाव रखना और कौनसा छोड़ना, अथवा कौनसे भाव की तरफ झुकना और कौनसे -
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy