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परमार्थवचनिका प्रवचन
जीवादितत्त्वों का सच्चा भावभासन नहीं होने से वह मोक्षमार्ग को साधना नहीं जानता। वह तो बन्धपद्धति को ही भ्रम से मोक्ष का साधन मानकर साध रहा है। अतः वह न आगमी है, न अध्यात्मी।
प्रश्न - अज्ञानी को अध्यात्मपद्धति नहीं है, इसलिये उसे 'अध्यात्मी भले ही मत कहो, परन्तु आगमपद्धति अर्थात् विकार और कर्म की परम्परा तो उस अज्ञानी को बहुत है, फिर भी उसे 'आगमी' कहने से इन्कार क्यों है?
उत्तर - मिथ्यादृष्टि को विकार तो है अर्थात् आगमपद्धति तो है; परन्तु आगमपद्धति का ज्ञान उसको नहीं है, विकार को विकाररूप से वह जानता नहीं है; इसलिए उसको ‘आगमी' नहीं कहा।
यहाँ ‘आगमी' अर्थात् 'आगमपद्धतिवाला' ऐसा अर्थ नहीं है, अपितु 'आगमी' अर्थात् ‘आगमपद्धति का ज्ञाता' ऐसा अर्थ होता है। अज्ञानी आगमपद्धति को भी पहचानता नहीं है। विकार स्वयं करता है
और कर्म उसमें निमित्त है, यद्यपि वह कर्म विकार नहीं कराता है; तथापि अज्ञानी अपने दोष का उत्पादक परद्रव्य को मानता है। अपने गुण-दोष का उत्पादक परद्रव्य को मानना तो तत्त्व की मोटी भूल है, अनीति है। प्रत्येक वस्तु और उसके परिणाम पर से निरपेक्ष और स्व से सापेक्ष हैं - ऐसा अनेकान्त है।
जब ऐसा वस्तुस्वरूप समझे, तब अपने गुण-दोष का उत्पादन परकृत न माने अर्थात् एकत्वबुद्धि से पर में राग-द्वेष न हों, वही जीव भेदज्ञान के द्वारा पर से पृथक् होकर अर्थात् निरपेक्ष होकर स्व-तरफ झुक सकता है और स्व-सापेक्षपने अर्थात् स्वाश्रय से मोक्षमार्ग प्रकट कर सकता है।
पुद्गल के परिणाम भी स्व से सापेक्ष और पर से निरपेक्ष हैं। जगत के सम्पूर्ण पदार्थों और उनकी पर्यायों को परमार्थ से स्व से सापेक्षपना और पर से निरपेक्षपना है; क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं