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________________ आगम-अध्यात्म के ज्ञाता मिथ्यादृष्टि जीव न आगमी है, न अध्यात्मी। क्यों? कारण कि वह कथनमात्र तो ग्रन्थपाठ के बल से आगम-अध्यात्म का स्वरूप उपदेशमात्र कहताहै, परन्तु आगम-अध्यात्म के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानता नहीं; इसलिये मूढजीव आगमी भी नहीं और अध्यात्मी भी नहीं, निर्वेदकत्वात्। (अर्थात् उसे उस भाव का वेदन नहीं)। अनुभवशून्य ज्ञान को वास्तव में ज्ञान कहते ही नहीं। शास्त्रज्ञान भले ही किया, विकार और स्वभाव भिन्न-भिन्न है - ऐसा शास्त्र से भले ही जाना; परन्तु जब तक स्वयं अन्तरंग अनुभव में उन दोनों की भिन्नता नहीं जानी, तब तक उसे सम्यग्ज्ञान नहीं कहते। तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि को आगम अथवा अध्यात्मपद्धति में से किसी एक का भी ज्ञान नहीं होता, अतः वह न तो आगमी ही है और न अध्यात्मी ही। प्रश्न – अज्ञानी आगम-अध्यात्म का ज्ञाता क्यों नहीं है? उत्तर - वह निर्वेदक है, इसलिये आगम-अध्यात्म का ज्ञाता नहीं है। अर्थात् शास्त्रादि के द्वारा जैसा जानपना कहा है, वैसा वेदन वह नहीं करता। ‘आत्मा का शुद्ध-स्वभाव है और बन्धभाव उससे भिन्न है' - ऐसा शास्त्र से जानता है; परन्तु स्वयं अपने ज्ञान में वैसा बन्धरहित शुद्ध स्वानुभव का वेदन नहीं करता, इसलिये वह निर्वेदक है। अनुभवरहित ज्ञान सम्यक् नहीं; अनुभवशून्य अकेला जानपना किस काम का? यद्यपि सूक्ष्मदृष्टि से तो उसका जानपना भी भूलयुक्त है, क्योंकि स्व-संवेदनरूप भेदज्ञान के बिना सच्चा ज्ञान होता ही नहीं। ज्ञानी कदाचित् भाषा न बोल पाता हो, शास्त्रपाठ न कर पाता हो, तथापि अन्तरंग में अनुभव द्वारा सच्चे भावभासन से उसके सम्यग्ज्ञान का परिणमन हो रहा है और वह मोक्षमार्ग का साधन कर रहा है। अज्ञानी को कदाचित् क्षयोपशम की विशेषता से शास्त्रज्ञान हो, परन्तु अनुभव में -ICILL
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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