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जीवद्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ
है; हाँ उस व्यवहार का आश्रय करने से इन्कार किया है। जिस भूमिका में जो व्यवहार हो उसे तो जानना परन्तु उसका आश्रय मत करना - ऐसा वहाँ कहने का आशय है। यदि उसके अवलम्बन से लाभ मानेगा तो उस व्यवहार के विकल्प में ही अटक जायेगा और परमार्थ का अनुभव नहीं हो सकेगा। जिनमत में प्रवर्तने के लिये दोनों नय जानने योग्य कहे हैं; किन्तु आश्रय करने योग्य तो मात्र एक भूतार्थस्वभाव ही है। अतः व्यवहार का ज्ञान मत छोड़ो, किन्तु उसका आश्रय छोड़ो और परमार्थ का आश्रय करो- ऐसा उपदेश है।
इसीप्रकार यहाँ भी संसारावस्था में किस जीव का कैसा व्यवहार होता है, उसका ज्ञान कराया है; किन्तु उसका आश्रय करने के लिये नहीं कहा। एक त्रिकाली अखण्ड द्रव्य को संसारी और सिद्ध ऐसे दो अवस्थाभेद से लक्ष्य में लेना भी व्यवहार है, और उस भेद के लक्ष्य से निर्विकल्पता नहीं होती। एकरूप अभेद द्रव्यस्वभाव को दृष्टि में लेना, वह निश्चय है तथा उसी के लक्ष्य से निर्विकल्पदशा की प्राप्ति होती है।
प्रश्न - क्या व्यवहार मिथ्यात्व है?
उत्तर - नहीं भाई! व्यवहार स्वयं मिथ्यात्व नहीं है, व्यवहार तो ज्ञानी को भी होता है; यहाँ तो चौदहवें गुणस्थान पर्यंत व्यवहार कहा है, वह व्यवहार मिथ्यात्व नहीं है; परन्तु व्यवहार के भेद के अवलम्बन में अटककर उससे लाभ मानें तो अवश्य मिथ्यात्व है।
समयसार नाटक में कहा है कि- असंख्य प्रकार के जो मिथ्यात्वभाव हैं, वे व्यवहार हैं तथा जिसका मिथ्यात्व छूटा और सम्यक्त्व हुआ, वह जीव निश्चय में लीन है और व्यवहार से मुक्त है। वहाँ ऐसा आशय समझना कि जो मिथ्यात्वभाव है वह किसी न किसी प्रकार से व्यवहाराश्रित है, अतः जितने प्रकार मिथ्यात्व के कहे उतने ही प्रकार व्यवहार के कहे; परन्तु इसका अभिप्राय ऐसा नहीं समझना कि जो व्यवहार है, वही मिथ्यात्व है। सम्यग्दृष्टि को व्यवहार तो भूमिकानुसार होता है,परन्तु उसे