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________________ परमार्थवचनिका प्रवचन 32 वहाँ तक व्यवहारपरिणति मानी गई है, सिद्ध को व्यवहार से रहित कहा है। शास्त्रों में जहाँ जो विवक्षा हो वही समझना चाहिए। . इसप्रकार संसारी जीव की अवस्था के अशुद्ध, मिश्र और शुद्ध तीन भेद बतलाये । संसार में से मोक्ष जानेवाले प्रत्येक जीव की यह तीनों अवस्थायें हो जाती हैं। अशुद्धता तो अज्ञानदशा में सर्व संसारी जीवों के अनादि से वर्त रही हैं; पश्चात् आत्मज्ञान होने पर साधनभावरूप मिश्रदशा प्रगट होती है, और शुद्धता वृद्धिंगत होते-होते केवलज्ञान होने पर साध्यरूप पूर्ण शुद्धदशा प्रगट होती है, पश्चात् अल्पकाल में मोक्षपद प्राप्त होता है। अशुद्धदशा तो आस्रव - बन्धतत्त्व है, मिश्रदशा में जितनी शुद्धता है, उतनी संवर-निर्जरा है तथा अल्प अशुद्धता है, वह आस्रव-बन्ध है, और पूर्ण शुद्धता प्रगट हुई वह भावमोक्ष है । द्रव्यमोक्षरूप सिद्धदशा की बात यहाँ नहीं ली है, क्योंकि संसारी जीवों की ही यहाँ बात है । अज्ञानी के मात्र अशुद्धता है, चौथे गुणस्थान से कुछ शुद्धता और साथ में राग भी है – इसप्रकार मिश्रपना है, बारहवें गुणस्थान में वीतरागता है अर्थात् वहाँ राग नहीं है, परन्तु ज्ञानादिगुणों की अवस्था अपूर्ण है, इसलिए वहाँ भी मिश्रभाव कहा । केवलज्ञानी के ज्ञानादि पूर्ण हो गये हैं, इसलिए शुद्धता मानी; तथापि अभी (तेरहवें - चौदहवें गुणस्थान में ) सिद्धपना नहीं है अर्थात् असिद्धत्व होने से उनको भी व्यवहार में परिणमित किया; क्योंकि शरीर के साथ अभी उसप्रकार का सम्बन्ध है और परिणति में उसप्रकार की योग्यता है। जब सिद्धदशा हुई तब व्यवहार छूट गया और व्यवहार छूटा, वहाँ संसार छूटा अर्थात् व्यवहारातीत हुआ, वहाँ संसारातीत हुआ । प्रश्न - यहाँ चौदहवें गुणस्थान तक व्यवहार कहा, सिद्ध को व्यवहारातीत कहा, किन्तु समयसारादि में तो सम्यग्दृष्टि को चौथे गुणस्थान से ही व्यवहार का निषेध कहा है? उत्तर - भाई ! वहाँ भी जो व्यवहार है, उसका अस्वीकार नहीं किया
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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