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________________ गाथा १०० : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार एकत्वसप्तति में भी कहा है – ऐसा कहकर तीन छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार हैं - ( अनुष्टुभ् ) तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शुचि दर्शनम् । चारित्रंच तदेकं स्यात् तदेकं निर्मलं तपः ।।५१॥ नमस्यं च तदेवैकं तदेवैकं च मंगलम् । उत्तमं च तदेवैकं तदेव शरणं सताम् ।।५२ ।। आचारश्च तदेवैकं तदैवावश्यकक्रिया। स्वाध्यायस्तु तदेवैकमप्रमत्तस्य योगिनः ।।५३ ।। (दोहा) वही एक मेरे लिए परमज्ञान चारित्र । पावन दर्शन तप वही निर्मल परम पवित्र ।।५१।। सत्पुरुषों के लिए वह एकमात्र संयोग। मंगल उत्तम शरण अर नमस्कार के योग्य |५२॥ योगी जो अप्रमत्त हैं उन्हें एक आचार। स्वाध्याय भी है वही. आवश्यक व्यवहार||५३।। वही (चैतन्यज्योति) एक परमज्ञान है, वही एक पवित्र दर्शन है, वही एक चारित्र है तथा वही एक निर्मल तप है। ___ सत्पुरुषों को वही एक नमस्कार करने योग्य है, वही एक मंगल है, वही एक उत्तम है तथा वही एक शरण है। ___ अप्रमत्त योगियों के लिए वही एक आचार, वही एक आवश्यक क्रिया है और वही एक स्वाध्याय है। स्वामीजी इन छन्दों का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "ज्ञानानन्दस्वरूप चैतन्यज्योति में अन्तर्दृष्टि करने से ही सम्यग्ज्ञान है; अतः वही एक परमज्ञान है। शास्त्र या पुण्य के आश्रय से सम्यग्ज्ञान १. पद्मनंदिपंचविंशतिका, एकत्वसप्तति अधिकार, श्लोक ३९ २. वही, श्लोक ४० ३. वही, श्लोक ४१
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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