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________________ गाथा ९९ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार (हरिगीत ) मन-वचन-तन व इंद्रियों की वासना का दमकमैं। भव उदधि संभव मोहजलचर और कंचन कामिनी।। की चाह को मैं ध्यानबल से चाहता हूँ छोड़ना। निज आतमा में आतमा को चाहता हूँ जोड़ना ।।१३४|| मन-वचन-काय संबंधी व समस्त इन्द्रियों संबंधी इच्छा को नियंत्रण करनेवाला मैं अब भवसागर में उत्पन्न होनेवाले मोहरूपी जलचर प्राणियों के समूह को तथा कनक और कामिनी की इच्छा को अति प्रबल विशुद्ध ध्यानमयी सर्वशक्ति से छोड़ता हूँ। स्वामीजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “यहाँ तो जिसे आत्मा का भान हुआ है, वह जीव प्रत्याख्यान करते हुए कहता है कि मैंने मन-वचन-काय और इन्द्रियों सम्बन्धी समस्त इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर ली है अर्थात् उनकी ओर का लक्ष्य छोड़ दिया है । ऐसा मैं अब भवसागर में उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेष-मोहरूपी जलचर प्राणियों को आत्मध्यान के बल से छोड़ता हूँ तथा अतिविशुद्ध आत्मध्यान के बल से कनक और कामिनियों की वांछा को भी छोड़ता हूँ। चैतन्यस्वरूप में एकाग्र होने पर समस्त परद्रव्य की वांछा छूट जाती है, उसी का नाम प्रत्याख्यान है।" इस कलश में प्रतिक्रमण करने वाले वीतरागी सन्तों की भावना को प्रस्तुत किया गया है। प्रतिक्रमण करनेवाला बड़े ही आत्मविश्वास से कह रहा है कि मैंने मन-वचन-काय संबंधी व पाँच इन्द्रियों संबंधी इच्छा पर नियंत्रण कर लिया है और अब मैं संसार समुद्र में उत्पन्न मोहरूपी खूखार जलचर प्राणियों के समूह को तथा कंचन-कामिनी की इच्छा को अत्यन्त प्रबल ध्यान के सम्पूर्ण बल से छोड़ता हूँ। ___ यहाँ खूखार जलचर द्वेष के और कंचन-कामिनी की इच्छा राग की प्रतीक है। मिथ्यात्व का तो वे नाश कर ही चुके हैं; अब जो थोड़े-बहुत राग-द्वेष बचे हैं, उनका नाश करने की तैयारी है ।।१३४।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७९४
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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