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नियमसार अनुशीलन मुनिजन कहीं अशरण नहीं हो जाते; क्योंकि निष्कर्म अवस्था में ज्ञान में आचरण करता हुआ, रमण करता हआ, परिणमन करता हआ ज्ञान ही उन मुनिराजों की परम शरण है । वे मुनिराज स्वयं ही उस ज्ञानस्वभाव में लीन रहते हुए परमामृत का पान करते हैं, अतीन्द्रियानन्द का अनुभव करते हैं, स्वाद लेते हैं।
शुभभाव को ही धर्म माननेवालों को यह चिन्ता सताती है कि यदि शुभभाव का भी निषेध करेंगे तो मुनिराज अशरण हो जावेंगे, उन्हें करने के लिए कोई काम नहीं रहेगा। आत्मा के ज्ञान, ध्यान और श्रद्धानमय वीतरागभाव की खबर न होने से ही अज्ञानियों को ऐसे विकल्प उठते हैं; किन्तु शुभभाव होना कोई अपूर्व उपलब्धि नहीं है, क्योंकि शुभभावतो इस
जीव को अनेक बार हुए हैं, पर उनसे भव का अन्त नहीं आया। __यदि शुभभाव नहीं हुए होते तो यह मनुष्य भव ही नहीं मिलता । यह मनुष्य भव और ये अनुकूल संयोग ही यह बात बताते हैं कि हमने पूर्व में अनेक प्रकार के शुभभाव किये हैं; पर दुःखों का अन्त नहीं आया है।
अत: एक बार गंभीरता से विचार करके यह निर्णय करें कि शुभभाव में धर्म नहीं है, शुभभाव कर्तव्य नहीं है; धर्म तो वीतरागभावरूप ही है और एकमात्र कर्तव्य भी वही है।
वेवीतरागभाव आत्मा के आश्रय से होते हैं; अत: अपना आत्मा ही परमशरण है। जिन मुनिराजों को निज भगवान आत्मा का परमशरण प्राप्त है, उन्हें अशरणसमझना हमारे अज्ञान कोही प्रदर्शित करता है||५०||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है
( मालिनी) अथ नियतमनोवाक्कायकृत्स्नेन्द्रियेच्छो
भवजलधिसमुत्थं मोहयादःसमूहम् । कनकयुवतिवांच्छामप्यहंसर्वशक्त्या
प्रबलतरविशुद्धध्यानमय्या त्यजामि ।।१३४ ।।