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________________ नियमसार गाथा ९७ अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि ज्ञानी जीव सदा किसप्रकार का चिन्तवन करते रहते हैं । गाथा मूलत: इसप्रकार है - णियभावं णवि मुच्चइ परभाव णेव गेण्हए केइ। जाणदि पस्सदि सव्वं सो हं इदि चिंतए णाणी।।९७ ।। (हरिगीत ) ज्ञानी विचारें देखे-जाने जो सभी को मैं वही। जो ना ग्रहे परभाव को निज भाव को छोड़े नहीं।।९७|| ज्ञानी इसप्रकार चिन्तवन करता है कि यह भगवान आत्मा अर्थात् मैं निजभाव को छोड़ता नहीं और किसी भी परभाव को ग्रहण नहीं करता; मात्र सबको जानता-देखता हूँ। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “यहाँ परमभावना के सम्मुख ज्ञानी को शिक्षा दी गई है। जो कारणपरमात्मा; समस्त पापरूपी बहादुर शत्रुसेना की विजयध्वजा को लूटनेवाले, त्रिकाल निरावरण, निरंजन, निजपरमभाव को कभी नहीं छोड़ता; पाँच प्रकार के संसार की वृद्धि के कारणभूत, विभावरूप पुद्गलद्रव्य के संयोग से उत्पन्न रागादिरूप परभावों को ग्रहण नहीं करता और निश्चय से स्वयं के निरावरण परमबोध से निरंजन सहजज्ञान, सहजदृष्टि, सहजचारित्र स्वभाव धर्मों के आधार-आधेय संबंधी विकल्पों से रहित, सदा मुक्त तथा सहज मुक्तिरूपी स्त्री के संभोग से उत्पन्न होनेवाले सौख्य के स्थानभूत कारणपरमात्मा को निज निरावरण परमज्ञान द्वारा जानता है और उसीप्रकार के सहज अवलोकन द्वारा देखता है; वह कारणसमयसार मैं हूँ - ऐसी भावना सम्यग्ज्ञानियों को सदा करना चाहिए।" स्वामीजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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