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________________ गाथा ९६ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार देखा उसने क्या नहीं देखा? तीन लोक के दृष्टा को जिसने देख लिया, उसने सब देख लिया। जिसने ऐसे आत्मा का श्रवण किया, उसने क्या नहीं श्रवण किया? भगवान आत्मा की बात जिसने सुनी, उसने चारों अनुयोगों का सार सुन लिया । यहाँ बाँचने की बात न लेकर श्रवण की बात ली है, अर्थात् पात्र होकर गुरुगम से सुनना चाहिये।'' इस छन्द में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि अनन्तचतुष्टय स्वभावी जो अपना आत्मा है; उसे जान लेने पर, देख लेने पर, सुन लेने पर; कुछ जानना-देखना-सुनना शेष नहीं रहता। अत: एक आत्मा को ही सुनो, देखो, जानो; अन्यत्र भटकने की क्या आवश्यकता है?।।४८।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं, जो इसप्रकार है (मालिनी) जयति स परमात्मा केवलज्ञानमूर्तिः सकलविमलदृष्टिः शाश्वतानंदरूपः । सहजपरमचिच्छक्त्यात्मकः शाश्वतोयं निखिलमुनिजनानां चित्तपंकेजहंसः ।।१२८ ।। (अडिल्ल) मुनिराजों के हृदयकमल का हंस जो। निर्मल जिसकी दृष्टि ज्ञान की मूर्ति जो॥ सहज परम चैतन्य शक्तिमय जानिये। सुखमय परमातमा सदा जयवंत है।।१२८॥ सभी मुनिराजों के हृदयकमल का हंस, केवलज्ञान की मूर्ति, सम्पूर्ण निर्मलदृष्टि से सम्पन्न, शाश्वत आनन्दरूप, सहजपरमचैतन्यशक्तिमय यह शाश्वत परमात्मा जयवंत वर्त रहा है। ___ इस छन्द में अत्यन्त भक्तिभाव से शाश्वत परमात्मा की स्तुति की गई है। उन्हें मुनिराजों के हृदयकमल का हंस बताया गया है, केवलज्ञान की मूर्ति कहा गया है, निर्मलदृष्टि से सम्पन्न, शाश्वत आनन्दमय और चैतन्य की शक्तिमय कहा गया है ।।१२८।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७७१
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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