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________________ गाथा ९५ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार ६७ सम्यग्ज्ञान की मूर्ति को सदा प्रत्याख्यान है । उसे पापसमूह का नाश करनेवाला सम्यक् चारित्र भी अतिशयरूप होता है। भव-भव में होनेवाले क्लेशों का नाश करने के लिए उसे मैं नित्य वंदन करता हूँ । इस कलश का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “जिस सम्यग्दृष्टि को कर्म-नोकर्म से भिन्न चैतन्यवस्तु का भान हो गया; वह कर्म - नोकर्म के समूह को छोड़कर जब चैतन्य में लीन होता है, तब उसे सदा प्रत्याख्यान है । जो अपना मूलस्वरूप न हो, उसका ही त्याग होता है; क्योंकि जो अपना मूलस्वरूप हो, उसका त्याग हो ही नहीं सकता । जो सम्यग्दृष्टि अपने ज्ञानानन्दस्वरूप को जानता हुआ उसमें लीन होता है, वह सम्यग्दृष्टि सम्यग्ज्ञान की मूर्ति है और उसे सदा ही राग का त्याग वर्तता है । यहाँ तो प्रत्याख्यान सिद्ध करना है, इसलिये राग के त्याग करने की बात की है; दृष्टि के विषय में तो आत्मा को रागादि का ग्रहण - त्याग है ही नहीं । " इस कलश में यही कहा गया है कि सम्यग्दर्शन - ज्ञान सहित चारित्र धारण करनेवाले सन्तों के तो प्रत्याख्यान (त्याग) सदा वर्तता है। भव का अभाव करनेवाले प्रत्याख्यान की मैं सदा वंदना करता हूँ ।। १२७ ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७६६ सभी आत्मा स्वयं परमात्मा हैं, परमात्मा कोई अलग नहीं होते । स्वभाव से तो सभी आत्मायें स्वयं परमात्मा ही हैं, पर अपने परमात्मस्वभाव को भूल दीन-हीन बन रहे हैं। जो अपने को जानते हैं, पहिचानते हैं, और अपने में ही जम जाते हैं, रम जाते हैं, समा जाते हैं; वे पर्याय में भी परमात्मा बन जाते हैं 1 - आप कुछ भी कहो, पृष्ठ १३
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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