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________________ ६६ नियमसार अनुशीलन ( आर्या ) प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः । आत्मनिचैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मनावर्ते ॥४७॥ (रोला) नष्ट हो गया मोहभाव जिसका ऐसा मैं । करके प्रत्याख्यान भाविकर्मों का अब तो॥ वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के। शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ||४७|| जिसका मोह नष्ट हो गया है - ऐसा मैं अब भविष्य के समस्त कर्मों का प्रत्याख्यान करके चैतन्यस्वरूप निष्कर्म आत्मा में आत्मा से ही निरन्तर वर्त रहा हूँ। 'इस कलश में तो यह बात स्पष्टरूप से सामने आ जाती है कि आत्मध्यान ही वास्तविक प्रत्याख्यान है; क्योंकि इसमें तो साफ-साफ शब्दों में कहा गया है कि प्रत्याख्यान करके अब मैं तो आत्मा में ही वर्तरहा हूँ।।४७|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथाहि - लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है - __(मंदाक्रांता) सम्यग्दृष्टिस्त्यजति सकलं कर्मनोकर्मजातं प्रत्याख्यानं भवति नियतंतस्य संज्ञानमूर्तेः। सच्चारित्राण्यघकुलहराण्यस्य तानिस्युरुच्चैः .तं वंदेहं भवपरिभवक्लेशनाशाय नित्यम् ॥१२७ ।। (हरिगीत) जो ज्ञानि छोड़े कर्म अर नोकर्म के समुदाय को। उस ज्ञानमूर्ति विज्ञजन को सदा प्रत्याख्यान है। और सत् चारित्र भी है क्योंकि नाशे पाप सब । वन्दन करूँ नित भवदुखों से मुक्त होनेके लिए।।१२७।। जो सम्यग्दृष्टि समस्त कर्म-नोकर्म के समूह को छोड़ता है; उस १. समयसार, कलश २२८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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