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________________ ४६ नियमसार अनुशीलन ( अनुष्टुभ् ) भावयामि भवावर्ते भावना: प्रागभाविताः । भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ।। ४३ ।। १ ( दोहा ) पहले कभी न भायी जो भवावर्त्त के माँहि । भवाभाव के लिए अब मैं भाता हूँ ताहि ॥ ४३ ॥ इस संसार के भँवरजाल में उलझा हुआ मैं ; भव का अभाव करने के लिए, अब पहले कभी न भायी गई भावना को भाता हूँ । उक्त छन्द में तो मात्र यही कहा गया है कि इस संसार सागर से पार उतारनेवाली सम्यग्दर्शनादि की भावना मैंने आजतक नहीं भायी; क्योंकि अबतक तो मैं इस संसार के भंवरजाल में उलझा रहा हूँ । अब मुझे कुछ समझ आई है; इसलिए अब मैं भव का अभाव करने के लिए, संसार सागर से पार उतरने के लिए उक्त सम्यग्दर्शनादिरूप धर्म की भावना भाता हूँ ॥ ४३ ॥ इसके बाद टीकाकार एक छंद स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है( मालिनी ) अथ भवजलराशौ मग्नजीवेन पूर्वं किमपि वचनमात्रं निर्वृतेः कारणं यत् । तदपि भवभवेषु श्रूयते बाह्यते वा न च न च बत कष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम् ।। १२१ ।। ( हरिगीत ) संसार सागर में मगन इस आत्मघाती जीव ने । रे मात्र कहने के धर्म की वार्ता भव-भव सुनी ॥ धारण किया पर खेद है कि अरे रे इस जीव ने । ज्ञायकस्वभावी आत्मा की बात भी न कभी सुनी ॥ १२१ ॥ जो मोक्ष का थोड़ा-बहुत कथनमात्र कारण है; उस व्यवहाररत्नत्रय १. आत्मानुशासन, श्लोक २३८
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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