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________________ गाथा ९० : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार को मिथ्यात्व कहते हैं। आसक्ति के भावों को अव्रत कहते हैं। क्रोधमान-माया-लोभ के परिणामों को कषाय कहते हैं। आत्मा के प्रदेशों के कम्पन को योग कहते हैं। - इसप्रकार ये चार सामान्य आस्रव हैं और इनके तेरह भेदरूप गुणस्थान हैं। चौदहवें गुणस्थान में आस्रव नहीं होता, इसलिये तेरहवें गुणस्थान तक आस्रव कहा है।' द्रव्यलिंगी मुनि नवमें ग्रैवेयक तक जाता है, उसने भी मिथ्यात्व आदि आस्रव की भावना का सेवन किया है; किन्तु सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया; इसलिये वास्तविक चारित्रदशा भी प्राप्त नहीं हुई। जिसने सम्यग्दर्शनपूर्वक वीतरागतारूपी चारित्र प्राप्त नहीं किया - ऐसे स्वरूपशून्य बहिर्दृष्टिजीव ने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कभी भाया नहीं। इस मिथ्यादृष्टि से विपरीत गुणसमुदायवाले शुद्धात्मा का श्रद्धान और ज्ञान करने वाला जीव अति आसन्नभव्य है, उसकी मुक्ति समीप है।" उक्त गाथा में मात्र यही कहा गया है कि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - सामान्यरूप से उक्त चार प्रत्यय ही बंध के कारण हैं, आस्रवभाव हैं । ये भाव पहले गुणस्थान से लेकर, तेरहवें गुणस्थान तक पाये जाते हैं। यही कारण है कि आरंभ के तेरह गुणस्थानों को विशेष प्रत्यय कहा गया है। दूरभव्य जीवों ने अनादिकाल से उक्त सामान्य-विशेष प्रत्ययों अर्थात् आस्रवभावों की ही भावना भायी है; सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मुक्तिमार्ग की भावना ही नहीं भायी। इसके विपरीत जीव यानि इन सम्यग्दर्शनादि की भावना भानेवाला जीव आसन्नभव्य होता है ।।९०।।। इस अतिनिकटभव्य जीव को सम्यग्ज्ञान की भावना कैसी होती है? इसप्रकार के प्रश्न के उत्तर में टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव, तथा चोक्तं श्री गुणभद्रस्वामिभिः - तथा गुणभद्रस्वामी ने भी कहा है - ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है - १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७२२ २. वही, पृष्ठ ७२२
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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