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कलश पद्यानुवाद
रे रे अनादि संसार से जो समृद्ध कर्मों का वन भयंकर । उसे भस्म करने में है सबल जो
अर मोक्षलक्ष्मी की भेंट है जो ।। शमसुखमयी चैतन्य अमृत
आनन्दधारा से जो लबालब । ऐसा जो तप है उसे संतगण सब प्रायश्चित कहते हैं निरन्तर || १८९|| (रोला )
परमकला युत शुद्ध एक आनन्दमूर्ति है। तमनाशक जो नित्यज्योति आद्यन्त शून्य है | उस आतम को जो भविजन अविचल मनवाला ।
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ध्यावे तो वह शीघ्र मोक्ष पदवी को पाता ॥ १९०॥ ( हरिगीत )
जो भव्य भावें सहज सम्यक् भाव से परमात्मा । ज्ञानात्मक उस परम संयमवंत को आनन्दमय || शिवसुन्दरी के सुक्ख का कारण परमपरमातमा । के लक्ष्य से सद्भावमय शुधनियम होता नियम से ।। १९१ ।। ( हरिगीत )
जो अनवरत अद्वैत चेतन निर्विकारी है सदा । उस आत्म को नय की तरंगें स्फुरित होती नहीं ॥ विकल्पों से पार एक अभेद जो शुद्धातमा । हो नमन, वंदन, स्तवन अर भावना हो भव्यतम ।।१९२|| ( हरिगीत )
यह ध्यान है यह ध्येय है और यह ध्याता अरे ।
यह ध्यान का फल इसतरह के विकल्पों के जाल से ।। जो मुक्त है श्रद्धेय है अर ध्येय एवं ध्यान है । उस परम आत्मतत्त्व को मम नमन बारंबार है || १९३||