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________________ २५६ सेना) नियमसार अनुशीलन (हरिगीत ) शुद्धात्मा के ज्ञान की संभावना जिस संत में। आत्मरत उस सन्त को तो नित्य प्रायश्चित्त है। धो दिये सब पाप अर निज में रमे जो संत नित। मैं न, उनको उन गुणों को प्राप्त करने के लिए।।१८३|| (दोहा) अनशनादि तपचरणमय और ज्ञान से गम्य। अघक्षयकारण तत्त्वनिज सहजशुद्धचैतन्य ||१८४|| (रोला) अरे प्रायश्चित्त उत्तम पुरुषों को जो होता। धर्मध्यानमय शुक्लध्यानमय चिन्तन है वह।। कर्मान्धकार का नाशकयह सद्बोध तेज है। निर्विकार अपनी महिमा में लीन सदा है।।१८५|| (हरिगीत) आत्म की उपलब्धि होती आतमा के ज्ञान से। मुनिजनों के करणरूपी घोरतम को नाशकर। कर्मवन उद्भव भवानल नाश करने के लिए। वह ज्ञानज्योति सतत् शमजलधार को है छोड़ती॥१८६।। (भुजंगप्रयात) जिनशास्त्ररूपी अमृत उदधि से। बाहर हुई संयम रत्नमाला ।। मुक्तिवधू वल्लभ तत्त्वज्ञानी। के कण्ठ की वह शोभा बनी है।।१८७|| भवरूपपादपजड़का विनाशक। मुनीराज के चित कमल में रहे नित। अर मुक्तिकांतारतिजन्य सुख का। मूल जो आतम उसको नमन हो।।१८८||
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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