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________________ गाथा १२१ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन छन्दों के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __"देखो, यह प्रायश्चित्त की विधि! मेरे आत्मा में प्रगट जो निजात्मगुण सम्पदा है, जो समाधि का विषय है, मैंने उसे पूर्व में कभी एक क्षण भी नहीं जाना है । चैतन्यस्वभाव की सम्पदा को अपने श्रद्धाज्ञान का विषय नहीं बनाया है। अरे रे! ऐसी चैतन्यप्रभुता को भूलकर मैं दुष्टकर्मों की प्रभुता से हैरान हो गया हूँ - मारा गया हूँ। ____ मैंने अपनी चैतन्यप्रभुता को नहीं जाना, इसलिए दुष्कर्मों की प्रभुता प्रगट हुई। मुझे मेरी चैतन्य सम्पदा का महत्त्व भासित नहीं हुआ और विकार का महत्त्व लगा; इसलिए ही मैं संसार में रखड़ा गया; यदि चैतन्य की प्रभुत्ता का महत्त्व भासित हुआ होता तो विकार का, पुण्यपाप का महत्त्व भासित नहीं होता। . चैतन्य सम्पदा को भूलकर कर्मोदयजन्य प्रभुता से जुड़ने पर ही, तीन लोक को युगपत जाननेवाला - ऐसा आन्तरिक निजवैभव तथा इन्द्र भी जिसे नमस्कार करें - ऐसा तीर्थंकर की विभूतिरूप बाह्य वैभव मुझसे छिन गया है। - ऐसा जानकर अब चैतन्य शक्ति की प्रभुता का आश्रय करके प्रायश्चित्त किया है अर्थात् चैतन्यशक्ति को संभाल लिया है, अब संसार में परिभ्रमण नहीं होगा। ___पहले अपनी प्रभुता को स्वयं भूला, तब बाद में जड़ ने प्रभुता प्रगट की। यहाँ यह नहीं बताया कि कर्म की प्रभुता के कारण मैं अपनी प्रभुता को भूला है।' ___ आत्मा की प्रभुता को भूलकर पर में आत्मबुद्धि से स्वयं पर का समागम किया, इसलिए संसार में रखड़ा गया। अरे रे! मैं मेरी प्रभुता को पूर्व में भूल गया था - ऐसा कौन कहे? जिसे अपनी प्रभुता का वर्तमान में भान हुआ हो, वही कहता है कि चैतन्य की प्रभुता के आश्रय से प्रायश्चित करने के कारण अब मैं संसार में हैरान नहीं होऊँगा।" १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०११-१०१२ २. वही, पृष्ठ १०१२
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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