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नियमसार अनुशीलन
परमात्मतत्त्व मैं स्वयं ही हूँ । अत: अब मैं कल्पनामात्र रमणीक संसारसुखों को तिलांजलि देकर परमसुखमय आत्मा की आराधना में संलग्न होता हूँ।।१९६-१९७ ।।
चौथा व पाँचवाँ छन्द इसप्रकार है
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(पृथ्वी)
निजात्मगुणसंपदं मम हृदि स्फुरन्तीमिमां समाधिविषयामहो क्षणमहं न जाने पुरा । जगत्त्रितयवैभवप्रलयहेतुदुः कर्मणां प्रभुत्वगुणशक्तितः खलु हतोस्मि हा संसृतौ ।। १९८ ।। ( हरिगीत )
समाधि की है विषय जो मेरे हृदय में स्फुरित । स्वातम गुणों की संपदा को एक क्षण जाना नहीं । त्रैलोक्य वैभव विनाशक दुष्कर्म की गुणशक्ति के । निमित्त से रे हाय मैं संसार में मारा गया || १९८ || मेरे हृदय में स्फुरायमान, समाधि की विषयभूत अपने आत्मा के गुणों की संपदा को मैंने पहले एक क्षण को भी नहीं जाना । तीन लोक के वैभव को नाश करने में निमित्तरूप दुष्ट कर्मों की प्रभुत्वगुणशक्ति से मैं संसार में मारा गया हूँ, हैरान हो गया हूँ।
( आर्या )
भवसंभवविषभूरुहफलमखिलं दुःखकारणं बुद्ध्वा ।
आत्मनि चैतन्यात्मनि संजातविशुद्धसौख्यमनुभुंजे । । १९९ ।।
(दोहा)
सांसारिक विषवृक्षफल दुख के कारण जान |
आत्मा से उत्पन्न सुख भोगूँ मैं भगवान || १९९||
संसार में उत्पन्न होनेवाले विषवृक्ष के समस्त फल को दुःख का कारण जानकर मैं चैतन्यात्मक आत्मा में उत्पन्न विशुद्ध सुख का अनुभव करता हूँ ।