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नियमसार गाथा १२१
यद्यपि सम्पूर्ण अधिकार में निश्चयप्रायश्चित्त का स्वरूप ही स्पष्ट किया गया है; तथापि इस अधिकार की इस अन्तिम गाथा में उपसंहार के रूप में एक बार फिर निश्चयप्रायश्चित्त का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । गाथा मूलतः इसप्रकार है -
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कायाई परदव्वे थिरभावं परिहरन्तु अप्पाणं ।
तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्वियप्पेण । । १२१ । । ( हरिगीत )
जो जीव स्थिरभाव तज कर तनादि परद्रव्य में ।
करे आतमध्यान कायोत्सर्ग होता है उसे ।। १२१ ।। शरीरादि परद्रव्य में स्थिरभाव को छोड़कर जो आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है; उसे कायोत्सर्ग होता है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यह निश्चयकायोत्सर्ग के स्वरूप का कथन है ।
सादि - सान्त, मूर्त, विजातीय विभावव्यंजनपर्यायात्मक अपना आकार ही काय (शरीर ) है । आदि शब्द से क्षेत्र, घर, सोना, 1 स्त्री आदि लेना चाहिए ।
शरीर, स्त्री, पुत्र, खेत, मकान और सोना, चाँदी आदि सभी परद्रव्यों में स्थिरभाव छोड़कर; व्यावहारिक क्रियाकाण्ड संबंधी आडम्बर और विविध विकल्परूप कोलाहल से रहित होकर; सहज परमयोग के बल से; सहजतपश्चरणरूपी क्षीरसागर का चन्द्रमारूप जो जीव; नित्य रमणीय, निरंजन निजकारणपरमात्मा को नित्य ध्याता है; वह सहजवैराग्यरूपी महल के शिखर का शिरोमणिरूप जीव वस्तुतः निश्चयकायोत्सर्ग है । "
इस गाथा और टीका का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी