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गाथा १२० : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
२२७ यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और यह ध्यान का फल है - ऐसे विकल्पजालों से जो मुक्त है, उस परमात्मतत्त्व को मैं नमन करता हूँ। - जिस योगपरायण योगी को कदाचित् भेदवाद उत्पन्न होता है; उसकी आर्हतमत मुक्ति होगी या नहीं होगी - यह कौन जानता है ?
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन छन्दों के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “यह मेरा परमात्मतत्त्व ही ध्येय है, मेरा आत्मा ही ध्याता है, मैं ही ध्यान करता हूँ तथा पूर्ण मुक्त दशा प्रगट होना ही ध्यान का फल है।" - ऐसा भेदरूपी विकल्पों का जाल भी जिस परमात्मतत्त्व में नहीं है - ऐसे उस सहज परमात्मतत्त्व को मैं नमस्कार करता हूँ।
जो भेद से - व्यवहार के आश्रय से मुक्ति मानता है, वह जिनेन्द्र भगवान के मत में नहीं है, मिथ्यादृष्टि है। सम्यग्ज्ञानी तो भेद को मुक्ति का कारण जानता ही नहीं है। इसलिए यह कहा कि “भेद के आश्रय से अरहन्त के मत में मुक्ति होती है या नहीं” – यह “कौन जाने?'
उक्त छन्दों में यह कहा गया है कि ध्यान, ध्याता और ध्येय और ध्यान का फल - इन विकल्पों से आत्मध्यान नहीं होता, निश्चयप्रायश्चित्त भी नहीं होता; क्योंकि निश्चयप्रायश्चित्त या निश्चयधर्मध्यान तो निर्विकल्पदशा का नाम है। इसलिए अब उक्त विकल्पजाल से मुक्त परमात्मतत्त्व को मैं नमस्कार करता हूँ, उसे ही ध्यान का ध्येय जानता हूँ, मानता हूँ।
दूसरे छन्द में भेदविकल्पों में उलझे सन्तों को मुक्ति होगी या नहींयह कहकर यह नहीं कहा कि हम नहीं जानते क्या होगा ? अपितु यही कहा है कि यह तो स्पष्ट ही है कि भेदवाद में उलझे लोगों को मुक्ति होनेवाली नहीं; क्योंकि मुक्ति का मार्ग तो निर्विकल्पदशारूप आत्मध्यान ही है।।।१९३-१९४|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १००३ २. वही, पृष्ठ १००४