________________
गाथा ८२ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
१५
( रोला )
इसप्रकार की थिति में मुनिवर भेदज्ञान से । पापपंक को धोकर समतारूपी जल से ॥ ज्ञानरूप होने से आतम मोहमुक्त हो । शोभित होता समयसार की कैसी महिमा ||११० || ऐसा होने पर जब मुनिराज को अत्यन्त भेदविज्ञान परिणाम होता है, तब यह समयसाररूप भगवान आत्मा स्वयं उपयोगरूप होने से मोह से मुक्त होता हुआ उपशमरूपी जलनिधि के ज्वार से पापरूपी कलंक को धोकर शोभायमान होता है। यह समयसार का कैसा भेद (रहस्य) है ? इस कलश के भाव को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं -
-
66
" इसप्रकार अन्तर में एकाग्रता होने से अस्थिरता से छूट जाता है और उपशमरस से पाप को धो डालता है । जैसे समुद्र में तूफान आवे, तब उस पानी के पूर से किनारे पर स्थित मैल धुल जाता है, वैसे ही शुद्ध चैतन्य में अन्तर - एकाग्रता करने पर पुण्य-पापरूपी मैल धुल जाता है। ‘राग, पुण्य अथवा एक समय की पर्याय वह मैं नहीं, मैं तो आत्मा ज्ञायक शुद्ध हूँ' – ऐसा अन्तरभान होने पर जो शक्ति अन्तर में थी, वह प्रगट हुई। उपशमरस से परिपूर्ण आत्मा की पर्याय में शान्ति का प्रवाह आया, उसके कारण सारा पाप-कलंक धुल गया ।
इसप्रकार उपशमरस से पूर्ण आत्मा पर्याय में भी उपशमरस से विराजता है । अत्यन्त भेदभाव होना, स्वयं उपयोगस्वरूप होना, मुक्तमोह होना, उपशमता का प्रवाह होना, पाप-कलंक धुल जाना, इत्यादि समझाने में तो क्रम पड़ता है; परन्तु ये सब हैं तो एक ही समय में ही । "
इस कलश में यही कहा गया है कि प्रतिक्रमणादि में संलग्न भावलिंगी संतों का आत्मा स्वयं उपयोगस्वरूप होनेसे भेदज्ञान के बल से मोहमुक्त होता हुआ उपशमरूपी सागर के ज्वार से पुण्य-पापरूप कर्मकलंक धोकर अत्यन्त पवित्र भाव से शोभित होता है । यह समयसाररूप भगवान आत्मा का अद्भुत माहात्म्य है ।। ११० ।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६५६