________________
नियमसार अनुशीलन
तात्पर्य यह है कि जीवन को संयमित करने के लिए, संयमित जीवन में दृढता लाने के लिए; प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान अत्यन्त आवश्यक है । अतः यहाँ प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान का स्वरूप समझाते हैं ।। ८२ ।
इसके उपरान्त टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव तथा आचार्य अमृतचन्द्र ने भी कहा है – कहकर एक छन्द उद्धृत करते हैं, जो इसप्रकार है
१४
—
( अनुष्टुभ् ) भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।। ३७ ।। ' (रोला )
अबतक जो भी हुए सिद्ध या आगे होंगे।
महिमा जानो एकमात्र सब भेदज्ञान की ॥ और जीव जो भटक रहे हैं भवसागर में ।
भेदज्ञान के ही अभाव से भटक रहे हैं ||३७|| आजतक जो कोई भी सिद्ध हुए हैं; वे सब भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए और कोई बँधे हैं; वे सब उस भेदविज्ञान के अभाव से ही बँधे हैं । भेदविज्ञान की महिमा इससे अधिक और क्या बताई जा सकती है कि आजतक जितने भी जीव मोक्ष गये हैं, वे सब भेदविज्ञान से गये हैं और जो जीव कर्मों से बँधे हैं, संसार में अनादि से अनन्त दुःख उठा रहे हैं; वे सब भेदविज्ञान के अभाव से ही उठा रहे हैं ।। ३७ ।।
इसके बाद मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है -
( मालिनी ) इति सति मुनिनाथस्योच्चकैर्भेदभावे स्वयमयमुपयोगाद्राजते मुक्तमोहः ।
शमजलनिधिपूरक्षालितांह: कलंक:
स खलु समयसारस्यास्य भेदः क एषः ।। ११० ।।
१. समयसार, कलश १३१