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गाथा ११२ : परमालोचनाधिकार आठवाँ और नौवाँ छन्द इसप्रकार है -
(द्रुतविलंबित ) जयति शांतरसामृतवारिधि
प्रतिदिनोदयचारुहिमद्युतिः । अतुलबोधदिवाकरदीधिति
प्रहतमोहतमस्समितिर्जिनः ।।१७८ ।। विजितजन्मजरामृतिसंचयः
प्रहतदारुणरागकदम्बकः। अघमहातिमिरव्रजभानुमान् जयति यः परमात्मपदस्थितः ।।१७९ ।।
(रोला) अरे शान्तरसरूपी अमृत के सागर को।
नित्य उल्लसित करने को तुम पूर्णचन्द हो। मोहतिमिर के नाशक दिनकर भी तो तुम हो।
हे जिन निज में लीन सदा जयवंत जगत में ||१७८|| वे जिनेन्द्र जयवन्त परमपद में स्थित जो।
जिनने जरा जनम-मरण को जीत लिया है। अरे पापतम के नाशक ने राग-द्वेष का।
निर्मूलन कर पूर्ण मूल से हनन किया है।।१७९।। जो शान्तरसरूपी अमृत के सागर को उछालने के लिए प्रतिदिन उदित होनेवाले सुन्दर चन्द्रमा के समान हैं और जिन्होंने अतुलनीय ज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से मोहान्धकार को नाश किया है; वे जिनेन्द्र भगवान जयवंत हैं।
जिसने जन्म-जरा-मृत्यु के समूह को जीत लिया है, दारुण राग के समूह का हनन कर दिया है, जो पापरूपी महान्धकार के समूह को नाश करने के लिए सूर्य के समान हैं और परमात्मपद में स्थित हैं; वे जिनेन्द्र जयवंत हैं।