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________________ १८६ नियमसार अनुशीलन है, परमकला सहित विकसित, निजगुणों से प्रफुल्लित है और जिसकी सहज अवस्था स्फुटित है, प्रगट है और जो निरन्तर निज महिमा में लीन है। ___सात तत्त्वों में वह सहज परमतत्त्व निर्मल है, सम्पूर्णत: विमल ज्ञान का घर है, निरावरण है, शिव है, विशद-विशद है अर्थात् अत्यन्त स्पष्ट है, नित्य है, बाह्य प्रपंचों से पराङ्मुख है और मुनिजनों को भी मन व वाणी से अति दूर है; उसे हम नमन करते हैं। इन छन्दों के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “जगत में सात तत्त्व हैं। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - इन सात तत्त्वों में जीवतत्त्व का स्वभाव त्रिकाल निर्मल है, सहज है तथा उत्कृष्ट है। सर्वथा पवित्र सम्यग्ज्ञान का निवासस्थान है अर्थात् ज्ञान सहजात्मस्वभाव में ही रहता है, आवरण रहित है। - ऐसे आत्मा के अवलम्बन बिना त्रिकाल में भी धर्म प्रगट होना सम्भव नहीं है। आत्मा त्रिकाल शिव अर्थात् कल्याण की मूर्ति है, त्रिकाल प्रत्यक्ष है, स्पष्ट है, ध्रुवपने नित्य है। ___ यह सहजतत्त्व बाह्य प्रपंच से तो पराङ्मुख है ही, मुनियों को भी मनवाणी द्वारा प्राप्त नहीं होता । मुनियों के अन्तरंग अनुभव में निरन्तर वर्त रहा है, राग से पार है। - ऐसे सहजतत्त्व को हमारा नमस्कार हो।" इसप्रकार इन दो छंदों में भगवान आत्मा को सतत जयवंत बताते हुए नमस्कार किया गया है। कहा गया है कि अपना यह भगवान आत्मा सदा अनाकुल है, निरंतर सुलभ है, प्रकाशमान है, समता का घर है, परमकला सहित विकसित है, प्रगट है और निज महिमारत है। यह परमतत्त्व अत्यन्त निर्मल है, निरावरण है, शिव है, विशद है, नित्य है, बाह्य प्रपंचों से पराङ्गमुख है और मुनिजनों की वाणी और मन से भी अति दूर है। ऐसे जयवंत परमतत्त्व को हम नमन करते हैं ।।१७६-१७७।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९५६
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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