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नियमसार अनुशीलन पाँचवाँ छन्द इसप्रकार है -
(हरिणी) अभिनवमिदं पापं यायाः समग्रधियोऽपि ये विदधति परं ब्रूमः किं ते तपस्विन एव हि। हृदि विलसितं शुद्धं ज्ञानं च पिंडमनुत्तमं पदमिदमहो ज्ञात्वा भूयोऽपियान्ति सरागताम् ।।१७५।।
(रोला) बुद्धिमान होने पर भी क्या कोई तपस्वी।
ऐसा कह सकता कि करो तुम नये पाप को। अरे खेद आश्चर्य शुद्ध आतम को जाने।
फिर भी ऐसा कहे समझ के बाहर है यह।।१७५|| .. हम पूछते हैं कि क्या वे वास्तव में तपस्वी हैं; जो समग्ररूप से बुद्धिमान होने पर भी दूसरों से यह कहते हैं कि तुम इस नये पाप को करो। आश्चर्य है, खेद है कि वे हृदय में विलसित शुद्धज्ञानरूप और सर्वोत्तम पिण्डरूप इस पद को जानते हुए भी सरागता को प्राप्त होते हैं।
उक्त छन्द के संबंध में स्वामीजी ने कुछ भी नहीं कहा। उन्हें इसमें कुछ कहने जैसा नहीं लगाक्योंकि क्या जगत में कोई तपस्वी ऐसा भी कह सकता है कि इस नये पाप को करो? पाप करने की प्रेरणा की बात तो प्रत्यक्षरूप से लौकिकजन भी नहीं करते; फिर साधुजन ऐसी बात कैसे कर सकते हैं ? ___टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव भी इस बात पर आश्चर्य ही व्यक्त कर रहे हैं, खेद प्रगट कर रहे हैं। हो सकता है कि उनके समय में कुछ ऐसे लोग रहे हों; जो इसप्रकार की अनर्गल बातें करते हों। __कभी-कभी और कहीं-कहीं ऐसा कहते लोग तो आज भी मिल जाते हैं कि यदि तुम पाप के समान पुण्य को त्यागने योग्य कहोगे तो फिर हम या तो पुण्य कार्य करना भी छोड़ देंगे या फिर जिसप्रकार पुण्य का उपदेश करते हैं, उसीप्रकार पाप का उपदेश करने लगेंगे।
उनसे कहते हैं कि उपदेश तो सदा ही ऊपर चढने का ही दिया