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गाथा ११२ : परमालोचनाधिकार
जिसप्रकार कमल के मध्य भाग में केशर का तन्तु होता है, वह केशर का तन्तु ही कमल का सार है; उसीप्रकार मुनियों के हृदयरूपी कमल में भगवान चिदानन्द आत्मा आनन्द सहित विराजमान है। यहाँ मुनियों की उग्र परिणति बताने के लिए उनके हृदय को कमल के केशर की उपमा दी है।
त्रिकाली तत्त्व तो सदैव बाधारहित शुद्ध है। कामदेव की सेना को भस्म करने के लिए दावानल समान है, अर्थात् शुद्धात्मतत्त्व में कामदेव की उत्पत्ति तो है ही नहीं, बल्कि उसके आश्रय से विषय-कषाय का नाश हो जाता है। उस सहजतत्त्व के शुद्ध ज्ञानरूप दीपक के प्रकाश ने मुनियों के मनोगृह में से घोर अंधकार का नाश किया है।
समस्त आत्माओं में ऐसा सहजतत्त्व जयवंत है। प्रत्येक आत्मा स्वयं ऐसी महिमा वाला है। यह स्वभाव ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा केवलज्ञान और सिद्धदशा का आधार है। इसलिए इसकी ही रुचि करना चाहिए।
वस्तु त्रिकाल अपने स्वभाव की महिमा में लीन है, उसकी महिमा को जानकर उसका आश्रय करनेवाले को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप संवर प्रगट होता है, जो धर्म है।"
इसप्रकार आत्मतत्त्व की महिमा के प्रतिपादक इस छन्द में मुनिजनों के हृदयकमल में विराजमान उस आत्मतत्त्व को विशुद्ध और बाधारहित बताया गया है। कहा गया है कि वह आत्मतत्त्व कामबाणों की गहन सेना को जला देने में दावाग्नि के समान है। मुनियों के मन के अंधकार को नाश करनेवाला वह तत्त्व साधुजनों से भी वंदनीय है, अभिनन्दनीय है, संसार समुद्र से पार होने के लिए नाव के समान है। ___टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कहते हैं कि मैं भी उस शुद्ध
आत्मतत्त्व की वंदना करता हूँ।।१७४।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९५२ २. वही, पृष्ठ ९५२-९५३
३. वही, पृष्ठ ९५५