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नियमसार अनुशीलन संसार की साक्षात् मूर्ति यह शरीर पौद्गलिक स्कन्धों से बना हुआ है, इसलिए अस्थिर है; इसे छोड़कर मैं ज्ञानशरीरी सदा शुद्ध भगवान आत्मा की शरण में जाता हूँ; क्योंकि मेरे इस अनादि संसार रोग की एकमात्र अचूक औषधि शुभाशुभभावों से रहित एक शुद्ध चैतन्य भावना ही है। सातवाँ, आठवाँ और नौवाँ छन्द इसप्रकार है -
(मालिनी) अथ विविधविकल्पं पंचसंसारमूलं
शुभमशुभसुकर्म प्रस्फुटं तद्विदित्वा । भवमरणविमुक्तं पंचमुक्तिप्रदं यं
तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि ।।१६८ ।। अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं
नविषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम् । तदपि गुरुवचोभिः प्राप्य यः शुद्धदृष्टिः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१६९ ।। जयति सहजतेज:प्रास्तरागान्धकारो
___ मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः । विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदायं परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ।।१७० ।।
(रोला) अरे पंचपरिवर्तनवाले भव के कारण।
विविध विकल्पोंवाले शुभ अर अशुभ कर्म हैं। अरे जानकर ऐसा जनम-मरण से विरहित।
मुक्ति प्रदाता शुद्धातम को नमन करूँ मैं ||१६८|| यद्यपि आदि-अन्त से विरहित आतमज्योति।
सत्य और सुमधुर वाणी का विषय नहीं है। फिर भी गुरुवचनों से आतमज्योति प्राप्त कर।
सम्यग्दृष्टि जीव मुक्तिवधु वल्लभ होते ।।१६९।।