SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा १११ : परमालोचनाधिकार १७३ “यह शरीर अनन्त पुद्गल परमाणुओं के संयोग से बना हुआ है। इसमें प्रतिक्षण अनन्त रजकण आते-जाते रहते हैं; इसलिए यह शरीर अस्थिर है। और इससे विपरीत चिदानन्द आत्मा सदैव स्थिर रहनेवाला है । शरीर तो संसार की मूर्ति है और आत्मा चैतन्य की मूर्ति है । चैतन्यस्वरूप आत्मा को छोड़कर शरीर का आश्रय करने पर तो भव की भावना की ही उत्पत्ति होती है । इसलिए मैं शरीर का आश्रय छोड़कर सदा एकरूप रहनेवाले ज्ञानशरीरी आत्मा का ही आश्रय करता हूँ; क्योंकि इसके आश्रय करने से ही संवर तथा मुक्ति होती है। शरीर तो संसारमूर्ति है, रोगों का घर है, अशुचि है; ऐसी देह में भी चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा सदा शुद्ध विराजमान है । उस आत्मा के आश्रय से ही धर्म प्रकट होता है । यदि शरीर के आश्रय से धर्म होता. हो, तब तो शरीर में रोग के समय धर्म नहीं होना चाहिए, परन्तु ऐसा तो है नहीं ।" इसलिए मुनिराज कहते हैं कि इस अस्थिर क्षणभंगुर शरीर का आश्रय छोड़कर मैं तो एकरूप ज्ञायक शरीर का ही शरण ग्रहण करता । तथा अन्य जिन जीवों को भी आत्मा की शान्ति प्राप्त करनी हो, वे भी अपने ज्ञानशरीरी आत्मा का ही शरण ग्रहण करें । २ आचार्य कहते हैं कि चैतन्यस्वभाव की भ्रान्ति ही महारोग है और चैतन्यस्वभाव की भावना करना ही इस महारोग का नाश करने की औषधि है । ' चैतन्यस्वरूप को जानकर उसकी वीतरागी भावना करे तो भवभ्रमण के रोग का अभाव हो, इसके अलावा शुभाशुभ भाव इत्यादि कोई भी भवभ्रमण को मिटानेवाला नहीं है। " उक्त छन्दों में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में मात्र यही कहा गया है कि १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९३४ ३. वही, पृष्ठ ९३५ २. वही, पृष्ठ ९३४ ४. वही, पृष्ठ ९३५
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy